अजय बोकिल
देश की सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आर्थिक रूप से कमजोर (EWS Reservation) वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण देने संबंधी 103वें संविधान संशोधन को बहुमत से सही ठहराए जाने के बाद
अनारक्षित वर्ग के गरीबों को आरक्षण का रास्ता साफ हो गया है। अधिकांश राजनीतिक दलों ने इसका स्वागत किया है, लेकिन इस फैसले के साथ कई अहम सवाल भी उठ रहे हैं।
पहला तो यह कि क्या आर्थिक आरक्षण देश में समानता के सिद्धांत का विरोधी है, दूसरा, आर्थिक आधार पर आरक्षण अनारक्षित वर्ग को ही क्यों, तीसरे क्या भविष्य में आरक्षण का मुख्य आधार आर्थिक पिछड़ापन ही बनेगा, चौथा क्या इससे सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले कि ‘देश में आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकता’ का यह उल्लंघन है और पांचवा यह कि इस देश में आरक्षण की बैसाखी आखिर कब तक कायम रहेगी?
ये तमाम सवाल संविधान की पीठ में शामिल जजों ने भी उठाए हैं, जिनके उत्तर हमें खोजने होंगे और कल को देश का सामाजिक ताना बाना और राजनीतिक दिशा भी उसी से तय होगी।
इस दूरगामी फैसले में पांचो जजों में एक बात पर सहमति दिखी कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं है। पीठ में शामिल जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने अपने निर्णय में कहा- 103वें संविधान संशोधन को संविधान के मूल ढांचे को भंग करने वाला नहीं कहा जा सकता। ईडब्ल्यूएस आरक्षण समानता संहिता या संविधान के मूलभूत तत्वों का उल्लंघन नहींऔर 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण सीमा का उल्लंघन बुनियादी ढांचे का उल्लंघन भी नहीं करता है, क्योंकि यहां आरक्षण की उच्चतम सीमा केवल 16 (4) और (5) के लिए है।
जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की राय में 103वें संविधान संशोधन को भेदभाव के आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता। ईडब्लूएस कोटे को संसद द्वारा की गई एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए। इससे अनुच्छेद 14 या संविधान के मूल ढांचे का कोई उल्लंघन नहीं होता।
ईडब्ल्यूएस कोटा आरक्षित वर्गों को इसके दायरे से बाहर रखकर उनके अधिकारों को प्रभावित नहीं करता है। आरक्षण जाति व्यवस्था द्वारा पैदा की गई असमानताओं को दूर करने के लिए लाया गया था। आजादी के 75 वर्षों के बाद हमें परिवर्तनकारी संवैधानिकता के दर्शन को जीने के लिए नीति पर फिर से विचार करने की जरूरत है।’
जस्टिस जेबी पारदीवाला ने भी अपने फैसले में दोनों के विचारों से सहमति जताई और संशोधन की वैधता को बरकरार रखा। आरक्षण व्यवस्था पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी में जस्टिस पारदीवाला ने कहा आरक्षण अंत नहीं है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय को सुरक्षित करने का साधन है, इसे निहित स्वार्थ नहीं बनने देना चाहिए। आरक्षण अनिश्चित काल तक जारी नहीं रहना चाहिए, जिससे निहित स्वार्थ बन जाए।’
गौरतलब है कि केंद्र की मोदी सरकार ने दोनों सदनो में 103वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दी दी। इसके तहत अनारक्षित वर्ग के लोगों को शैक्षणिक संस्थानों में और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला महत्वपूर्ण
12 जनवरी 2019 को राष्ट्रपति ने इस कानून को मंजूरी दी, लेकिन इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में यह कहकर चुनौती दी गई थी कि इससे संविधान के समानता के अधिकार और पचास प्रतिशत तक आरक्षण की सीमा का उल्लंघन होता है। अत: इस कानून को अवैध माना जाए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून को वैध माना। कानून में सालाना 8 लाख से कम आय वाले परिवारों को इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन्स (ईडब्लूएस) मानते हुए सरकारी और निजी शैक्षिक तथा सरकारी नौकरी में भी 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है।
लेकिन संविधान पीठ के ही जस्टिस एस. रवींद्र भट ने अपने निर्णय में ईडब्ल्यूएस आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन पर असहमति जताते हुए उस रद्द कर दिया। जस्टिस भट ने अन्य तीन न्यायाधीशों के फैसले पर असहमति जताते हुए कहा 103 वां संशोधन संवैधानिक रूप से प्रतिबंधित भेदभाव की वकालत करता है। आरक्षण पर निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन की अनुमति देने से और अधिक उल्लंघन हो सकते हैं जिसके परिणामस्वरूप विभाजन हो सकता है।
जस्टिस रवींद्र भट ने अपने फैसले में आर्थिक आधार पर आरक्षण को खारिज करते हुए कई सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि जिस तरह एससी, एसटी और ओबीसी को इस आरक्षण से बाहर किया गया है, उससे भ्रम होता है कि समाज में उनकी स्थिति काफी बेहतर है, जबकि सबसे ज्यादा गरीब इसी वर्गों में हैं। यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है।
हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि अकेले आर्थिक आधार पर किया गया आरक्षण वैध है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यही है कि जस्टिस भट और जस्टिस यू.यू. ललित ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को तो सही माना, लेकिन उसके तरीके पर असहमति जताई।
इस बारे में सरकारी पक्ष का कहना है कि नए प्रावधान से सुप्रीम कोर्ट द्वारा लागू आरक्षण की पचास फीसदी की सीमा का कहीं से उल्लंघन नहीं हुआ है, क्योंकि यह वास्तव में कोटे के भीतर कोटा ही है। यह दस प्रतिशत आरक्षण अनारक्षित वर्ग (जिसमें हिंदुओं की अगड़ी जातियां व गैर हिंदू धर्मावलंबी शामिल हैं) के बाकी पचास फीसदी कोटे में से ही दिया गया है।
राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
बेशक, इससे समाज के सामान्य वर्ग के उस गरीब तबके को राहत मिली है, जो केवल गरीब होने के कारण अपने ही वर्ग के सम्पन्न तबके से प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ रहा था। भाजपा और एनडीए में शामिल दलों ने इसे अपनी जीत बताया है। भाजपा को इसका कुछ लाभ आगामी चुनावों में हो सकता है, हालांकि ज्यादातर राज्यों में अगड़ी जातियां भाजपा समर्थक ही हैं।
इस मामले में कांग्रेस का रवैया थोड़ा ढुलमुल दिखा। उसने एक तरफ अगड़ों को आर्थिक आरक्षण का समर्थन यह कहकर किया कि संसद में उनकी पार्टी ने संविधान संशोधन के पक्ष में वोट दिया था तो दूसरी तरफ अपने ही एक दलित नेता उदित राज से इसका यह कहकर विरोध करा दिया कि यह संशोधन आरक्षण की सीमा लांघता है और यह भी कि न्यायपालिका की मानसिकता ही मनुवादी है। हालांकि कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने स्पष्ट कहा कि उनकी पार्टी शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत करती है।
उन्होंने कहा कि यह संविधान संशोधन 2005-06 में डाॅ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा सिन्हा आयोग के गठन से शुरू की गई प्रक्रिया का ही नतीजा है। सिन्हा आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट दी थी। केवल तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने फैसले का यहकर विरोध किया कि इससे लंबे समय से जारी ‘सामाजिक न्याय के संघर्ष को झटका’ लगा है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फैसले का स्वागत करते हुए देश में जातीय जनगणना की मांग दोहराई। जाहिर है कि अधिकांश दल राजनीतिक कारणों से फैसले का खुलकर विरोध नहीं कर रहे हैं, क्योंकि अगड़ों के वोट सभी को चाहिए।
खिंच गई हैं भविष्य की राजनीतिक रेखाएं
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने भविष्य की राजनीतिक रेखाएं भी खींच दी हैं। अनारक्षित वर्ग को आर्थिक आरक्षण की वैधता ने आने वाले समय में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग में भी इसे लागू करने की मांग की नींव रख दी है ( ओबीसी वर्ग में तो वैसे भी क्रीमी लेयर का नियम लागू है) क्योंकि आरक्षित वर्गों में भी विभिन्न जातियों के बीच आरक्षण का लाभ उठाने को लेकर प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। (भारत में करीब 3 जातियां और 25 हजार उप जातियां हैं)।
यह भी बात जोरों से उठ रही है कि जब एक परिवार का तीन पीढि़यों से आरक्षण का लाभ लेते हुए आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो गया फिर उन्हें आरक्षण क्यों मिलते रहना चाहिए तथा देश में सामाजिक और आर्थिक समता का सर्वमान्य पैमाना क्या है, क्या होना चाहिए?
विभिन्न जातियों और समाजों में आरक्षण का लाभ उठाकर पनप और प्रभावी हो रहे नए किस्म के ब्राह्मणवाद को अभी से नियंत्रित करना कितना जरूरी है? और यह कैसे होगा? वोट आधारित राजनीति इसे कितना होने देगी?
जाहिर है कि बदलते सामाजिक समीकरणो के चलते यह मांग आरक्षित वर्गों में से ही उठ सकती है। यानी सामाजिक न्याय का संघर्ष एक नए दौर में प्रवेश कर सकता है। ये बदले सामाजिक समीकरण ही राजनीति की चाल भी बदलेंगे और राजनीति के साथ व्यवस्था भी बदलेगी। क्षीण रूप में इसकी आहट सुनाई भी देने लगी है।
वरिष्ठ संपादक
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