स्पेस डॉकिंग क्या है, यह कैसे काम करती है, और भारत के अंतरिक्ष मिशन में इसकी क्या भूमिका है?…

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्पेस डॉकिंग की दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया है।

स्पैडेक्स प्रयोग पूरी तरह से सफल होने के बाद भारत चीन, रूस और अमेरिका की कतार में शामिल हो जाएगा। इस लिहाज से देखें तो अगले कुछ हफ्ते भारत के लिए काफी अहम होने वाले हैं।

इसरो के प्रमुख एस सोमनाथ ने उम्मीद जताई है कि सात जनवरी तक डॉकिंग की प्रक्रिया पूरी हो सकती है।

स्पेस डॉकिंग भविष्य में भारत के विभिन्न स्पेस मिशन में मददगार होगा। आइए जानते हैं आखिर क्या होती है स्पेस डॉकिंग, अंतरिक्ष से जुड़े मिशन के लिए यह कितना जरूरी है और भारत के लिए इसकी अहमियत क्या है।

क्या होती है स्पेस डॉकिंग
स्पेस डॉकिंग अंतरिक्ष में दो उपग्रहों को जोड़ने की प्रक्रिया को कहते हैं। इसके बाद दोनों उपग्रहों के बीच क्रू मेंबर्स, सामान और उपकरणों की सप्लाई हो सकेगी।

अंतरिक्ष की खोज में निकले एस्ट्रोनॉट्स के लिए डॉकिंग काफी अहम होती है। इससे उन्हें विभिन्न स्पेसक्राफ्ट में यात्रा करने में आसानी होती है। वह इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में भी जा सकते हैं और अंतरिक्ष से जुड़े विभिन्न प्रयोगों और रिसर्च को अंजाम दे सकते हैं।

कैसे काम करती है स्पेस डॉकिंग
स्पेस डॉकिंग एक बेहद जटिल प्रक्रिया है। इसमें एकदम सटीक गणना और समन्वय की जरूरत होती है। दोनों उपग्रह बहुत ही धीमी और नियंत्रित रफ्तार के साथ एक-दूसरे के करीब आते हैं।

जब दोनों स्पेसक्राफ्ट करीब आ जाते हैं तो उन्हें जोड़ने के लिए डॉकिंग मैकेनिज्म का इस्तेमाल किया जाता है।

डॉकिंग मैकेनिज्म में कुंडी, हुक और सील की पूरी सिरीज होती है जो यह सुनिश्चित करती है कि दोनों स्पेसक्राफ्ट सुरक्षित ढंग से जुड़ जाएं।

एक बार डॉकिंग कंप्लीट होने के बाद अंतरिक्षयात्री एक प्रेशराइज्ड टनल के जरिए एक स्पेसक्राफ्ट से दूसरे स्पेसक्राफ्ट में आसानी से आ-जा सकते हैं।

अंतरिक्ष की दुनिया में कितना अहम
अंतरिक्ष की खोज में स्पेस डॉकिंग कई वजहों से महत्वपूर्ण है। सबसे पहली और अहम बात कि यह दो स्पेसक्राफ्ट के बीच क्रू मेंबर्स, उपकरणों और सामानों की सप्लाई सुनिश्चित करता है। ऐसा होने से अंतरिक्षयात्रियों को स्पेस में लंबा समय बिताने की सहूलियत मिलती है।

मंगल ग्रह या दूसरे ग्रहों पर चलने वाले लंबे मिशनों के लिए यह काफी अहम होता है। इसके अलावा स्पेस डॉकिंग से अंतरिक्ष में अपना स्ट्रक्चर खड़ा करने में मदद मिलती है। सामानों की सप्लाई आसान होने से यहां पर स्पेस स्टेशन की स्थापना आसानी से की जा सकती है।

अंतरिक्ष यात्री वहां पर रहने और काम करने के लिए जगह तैयार कर सकते हैं। साथ ही स्पेस डॉकिंग से बिना अंतरिक्ष मिशन में बाधा पहुंचाए स्पेसक्राफ्ट की देखरेख और मरम्मत भी की जा सकती है।

क्या होती हैं चुनौतियां
स्पेस डॉकिंग एक बेहद चुनौतीपूर्ण और जटिल प्रक्रिया है। इस दौरान स्पेसक्राफ्ट और धरती पर स्थित कंट्रोल रूम से समन्वय और कम्यूनिकेशन बिल्कुल सटीक स्तर का होना चाहिए।

सबसे बड़ी चुनौती होती है अंतरिक्ष के अंदर दो स्पेसक्राफ्ट को सही रफ्तार और एंगल के साथ अलाइन करना। कैलकुलेशन में किसी भी तरह की गड़बड़ी से टकराव हो सकता है जो डॉकिंग को असफल कर देगा।

इन सबमें सबसे बड़ा चैलेंज होता है विजिबिलिटी और कम्यूनिकेशन का। अंतरिक्षयात्री पूरी तरह से उपकरणों और सेंसर्स पर डिपेंड होते हैं।

इसी के सहारे पूरी प्रक्रिया चलती है। कोई भी सीधे तौर पर देख नहीं सकता कि स्पेसक्राफ्ट के बीच कितनी दूरी है या वो सही तरीके से अलाइन हो रहे हैं या नहीं? इसके लिए बहुत हाई लेवल की स्किल और ट्रेनिंग की जरूरत होती है।

भारत के लिए अहम क्यों
तमाम चुनौतियों के बावजूद स्पेस डॉकिंग अंतरिक्ष मिशन के लिए बेहद अहम है। अगर भारत इस प्रयोग में सफल रहता है तो 2035 तक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन बनाने की उसकी महत्वाकांक्षा पूरी हो सकती है।

इसरो इस क्षमता का उपयोग अपने अगले चंद्र मिशन के लिए भी करेगा, जिसके दौरान वह नमूने वापस लाने की योजना बना रहा है।

चंद्रयान -4 को दो अलग-अलग लॉन्च, और अंतरिक्ष में डॉकिंग की जरूरत होगी। इसमें भी यह मददगार होगा। भारत अपने क्षितिज मिशन का भी विस्तार कर सकेगा।

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