प्रवीण नांगिया (ज्योतिष सलाहकार):
संतान सप्तमी व्रत कथा भाद्रपद शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को संतान सप्तमी व्रत किया जाता है।
यह व्रत महिलाएं अपनी संतान की लंबी उम्र के लिए रखती हैं। इस साल यह व्रत 10 सितंबर को है। इस व्रत शंकर पार्वती की पूजा की जाती है।
संतान सप्तमी व्रत कथा-एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान से कहा-हे प्रभो, कोई ऐसा व्रत बताइए बताइए जिसके प्रभाव से मनुष्यों के अनेकों संसारिक क्लेश दुख दूर होकर वे पुत्र एंव पौत्रवान हो जाएं?
यह सुनकर भगवान बोले-हे राजन तुमने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है। मैं तुमकों एक पौराणिक इतिहास सुनाता हूं। ध्यानपूर्वक सुनों। एक समय लोमष ऋषि ब्रजराज की मथुरापुरी में बसुदेव देवकी के घर गए। ऋषिराज को आया हुआ देख करके दोनों बहुत खुश हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बैठाकर उनका अनेक प्रकार से वंदन और सत्कार किया। फिर मुनि के चरणोदक से अपने घर और शरीर को पवित्र किया।वह प्रसन्न होकर उनको कथा सुनाने लगे।
कथा के कहते लौमष ने कहा कि हे देवकी दुष्ट दुराचारी पापी कंस ने तुम्हारे कई पुत्र मार डाले हैं, जिसके कारण तुम्हारा मन दुखी है। इसी प्रकार राजा नहुष की पत्नी चंद्रमुखी भी दुखी कहा करती थी, लेकिन उसने संतान संप्तमी का व्रत विधि विधान से किया। ये सुनकर देवकी ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा, हे ऋषिराज कृपा करके रानी चंद्रमुखी का संपूर्म वृतांत और इस व्रत का विस्तार सहित मुझे बतलाइए, जिससे मैं भी इस दुख से छुटकारा पाऊं।
लोमष ऋषि ने कहा- हे दवकी अयोध्या के राजा नाहुष थे, उनकी पत्नी चंद्रमुखी बहुत सुंदर थी। उनके नगर में विष्णु गुप्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नि का नाम भद्रमुखी था। वह भी बहुत सुंदर थी। रानी और ब्राह्मणी में बहुत प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने के लिए गईं। वहां उन्होंने देखा कि बहुत सी महिलाएं सरयू नदी में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहनकर मंडप के नीचे शंकर पार्वती की पूजा कर रही थीं। दोनों ने उनसे पूथा यह आप क्या कर रही हैं, तब उन्होंने बताया कि यह हम संतान सप्तमी का व्रत कर रहे हैं।
यह सुनकर रानी और ब्राह्मणी ने व्रत करने का संकल्प किया और वापस घर आ गईं। ब्राह्मणी से नियमपूर्वक इस व्रत को करती रही, लेकिन रानी कभी व्रत करती, कभी न करती। । कुछ समय बाद दोनों मर गई और अगले जन्म में रानी को बंदरिया की यौनि और ब्राहमणी को मुर्गी का जन्म मिला? ब्राहमणी मुर्गी यौनि में शंकर पार्वती का व्रत करती रही। लेकिन रानी सब कुछ भूल गई। थोड़े समय बाद दोनों ने देह त्याग दी। अब तीसरे जन्म में मनुष्य यौनि मिली।
ब्राहमणी ने ब्राहमण के घर कन्या का जन्म लिया उसका नाम भूषणदेवी रखा गया और उसका विवाह गोकुलके ब्राहमण अग्निशील से किया। भूषणदेवी इतनी सुंदर थी कि कोई ज्वैलरी पहने बिना भी सुंदर लगती थी। कामदेव की पत्नि भी उससे आगे लजाती थी। उसके आठ पुत्र हुए। यह सब शिवजी के व्रत का पुनीत फल था। दूसरी ओर शिवजी की पूजा से विमुख रानी के कोई पुत्र नहीं थाा। वह निसंतान दुखी रहने लगी।रानी और ब्राहमणी में जो प्यार पहले था वह अभी भी बना था।
रानी जब वृद्ध अवस्था में थी, तो उसके गूंगा, बहरा अल्पआयु वाला बेटा हुआ और कुछ समय बाद मर गया। अब तो रानी बहुत दुखी रहने लगी। अब रानी के मन में ब्राहमणी के बेचे देककर ईर्ष्या होने लगी। ब्राहमणी ने रानी का संताप दूर करने के लिए अपने आठों पुत्रों को रानी के पास छोड़ दिया।
रानी के पाप के वशीभूत होकर उसने ब्राहमणी के बेटों को जहर खिला दिया। लेकिन बालकों को कुछ न हुआ। यह देखकर रानी ने इसका रहस्य जानना चाहा। रानी ने ब्राहमणी को सारी बात बतलाई। रानी के ऐसे वचन सुनकर ब्राहमणी ने कहा-सुनो तुमको तीन जन्म का हाल कहती हूं ध्यान से सुनना।
तब ब्राहमणी ने रानी को चंद्रमुखी और भद्रमुखी से लेकर बंदरिया और मुर्गी की काहनी सुनाई और कहा कि मुझे लगता है कि तुम्हारे ऊपर जो भारी संकट है, वो उसका कारण भगवान की पूजा से विमुख होना है। अगर तुम संतान सप्तमी का व्रत विधिपूर्वक करोगी तो तुम्हारा संकट दूर हो जाएगा।
भूषणदेवी के मुख से ये बातें सुनकर रानी को सभी याद आ गया और पश्चाताप करने लगी। उसने ब्राहमणी के पैरों में गिरकर क्षमा मांगी। और उस दिन से रानी ने नियमपूर्वक व्रत किया , इसव्रत के प्रभाव से रानी को संतान सुख मिला। तब भगवान ने रहा हे देवकी मैं तुमसे भी कहता हूं कि तुम भी इस पुनीत व्रत को करो।