अरुणाचल प्रदेश में भू-तापीय ऊर्जा की असीम संभावनाएं हैं।
तवांग और वेस्ट कामेंग जिलों के कई इलाकों में गर्म पानी के झरनों पर हुए अध्ययन ने इसकी पुष्टि की है”पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में भू-तापीय (जियोथर्मल) ऊर्जा के दोहन की अपार संभावनाएं मौजूद हैं” द सेंटर फार अर्थ साइंसेज एंड हिमालयन स्टडीज, नॉर्वेजियन जियोटेक्निकल इंस्टिट्यूट (एनजीआई) और आइसलैंड की कंपनी जिओट्रापी ने बीते सप्ताह तावांग और वेस्ट कामेंग जिलों में किए गए एक अध्ययन के बाद यह बात कही है।
इस अध्ययन के लिए इन तीनों ने बीते साल सितंबर में अरुणाचल प्रदेश सरकार के साथ एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे. तिब्बत की सीमा से लगे अरुणाचल प्रदेश में पनबिजली का भी अकूत भंडार है और राज्य में कई बड़ी पनबिजली योजनाएं विभिन्न चरणों में हैं।
हालांकि, विभिन्न संगठनों की ओर से इनका विरोध भी होता रहा है, समझौता और अध्ययन अरुणाचल प्रदेश सरकार ने सितंबर 2023 में भू-तापीय ऊर्जा के दोहन की संभावनाएं तलाशने के लिए नॉर्वेजियन जियोटेक्निकल इंस्टिट्यूट (एनजीआई) के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया था।
इस मौके पर राज्य के विज्ञान व प्रौद्योगिकी सचिव रेपो रोन्या और एनजीआई के तकनीकी विशेषज्ञ राजेंद्र भसीन के अलावा मुख्यमंत्री पेमा खांडू, विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री होनाचुन नंदम, मुख्य सचिव धर्मेंद्र और नई दिल्ली स्थित नॉर्वे दूतावास के वरिष्ठ सलाहकार डॉ. विवेक कुमार मौजूद थे।
इसी समझौते के तहत विशेषज्ञों की एक टीम ने दुर्गम तवांग और वेस्ट कामेंग जिलों के कई इलाकों में गर्म पानी के झरनों का अध्ययन किया है. अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू बताते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण वैश्विक तापमान वृद्धि को ध्यान में रखते हुए यह हरित और स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन की दिशा में सही और सामयिक पहल है।
उनका कहना है कि इस अध्ययन का मकसद अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में भू-तापीय क्षमता की पहचान कर उनकी मात्रा निर्धारित करना है।
इस ऊर्जा का इस्तेमाल कोल्ड स्टोरेज, कृषि उत्पादों को सुखाने, घरों, होटलों और अस्पतालों में करने की योजना है। साथ ही, इस अध्ययन का मकसद भविष्य में हरित ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करना भी है।
अध्ययन से क्या पता चला जियोट्रॉपी आइसलैंड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉ. विजय चौहान ने अध्ययन के बाद एक बयान में कहा, “अरुणाचल प्रदेश और सामान्य रूप से हिमालय में भू-तापीय ऊर्जा के दोहन की भारी संभावनाएं हैं” उन्होंने रेखांकित किया कि हिमालय क्षेत्र में भू-तापीय ऊर्जा की क्षमता विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है।
इनमें द्रव-चट्टान के आपसी संबंध और किसी खास स्थान की संरचनात्मक भूवैज्ञानिक स्थिति शामिल हैं।
स्टडी का ब्योरा देते हुए जांच टीम के एक सदस्य बताते हैं कि एक सप्ताह तक भू-तापीय ऊर्जा के दोहन के लिए जिले के दिरांग, मागो, थिंगबू और ग्रेनखार इलाकों में स्थित गर्म झरनों की ऊर्जा और संरचनात्मक मानचित्र का गहराई से अध्ययन किया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि भू-तापीय ऊर्जा का कोल्ड स्टोरेज समेत कई क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा सकता है. इलाके में स्थित गर्म पानी के झरनों से इस ऊर्जा का दोहन किया जाएगा।
लद्दाख में सफल रहा पायलट प्रोजेक्ट इससे पहले लद्दाख के चुमाथांग गांव में भू-तापीय ऊर्जा के दोहन की एक पायलट परियोजना कामयाब रही है।
वहां होटल की एक इमारत को भीतर से गर्म रखने के लिए इस ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा रहा है।
इसका इस्तेमाल आम लोगों के अलावा इलाके में तैनात सेना के जवान भी करते हैं, अब अरुणाचल में भी ऐसा पायलट प्रोजेक्ट शुरू करने पर विचार चल रहा है।
एनजीआई के भू-तकनीकी विशेषज्ञ डॉ. राजेंद्र भसीन बताते हैं कि देश के जिस इलाके में भी भू-तापीय ऊर्जा के स्रोत हैं, वहां इसका दोहन कर बिजली के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
जांच टीम के मुताबिक, लद्दाख की तर्ज पर अब अरुणाचल प्रदेश में भी भू-तापीय ऊर्जा के दोहन के लिए एक पायलट परियोजना शुरू की जाएगी।
इसकी कामयाबी के आधार पर भू-तापीय ऊर्जा के दोहन के लिए संभावित स्थानों पर ड्रिलिंग का काम शुरू किया जाएगा, टीम की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि अरुणाचल प्रदेश के सुदूर और दुर्गम गांव मागो में भू-तापीय ऊर्जा के दोहन की काफी संभावना है।
वहां गर्म पानी के झरनों की तादाद बहुत ज्यादा है, पर्यावरण विशेषज्ञों ने भी इस पहल का स्वागत करते हुए कहा है कि पनबिजली परियोजनाओं के तहत बनने वाले विशालकाय बांधों के लिए पेड़ों को काटना पड़ता है।
इसका पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ता है, लेकिन भू-तापीय योजना से पर्यावरण को वैसा कोई नुकसान नहीं होगा।
बांधों का विरोध अरुणाचल में पनबिजली परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित बांधों के निर्माण का हमेशा विरोध होता रहा है।
राज्य की दिबांग घाटी स्थित बहुउद्देशीय इटालीन पनबिजली परियोजना का भी बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है, सिर्फ अरुणाचल ही नहीं, बल्कि इससे सटे असम के तमाम संगठन भी पनबिजली परियोजनाओं को विरोध करते रहे हैं।
उनकी दलील है कि इससे नदियों का मार्ग बदल जाएगा और असम के निचले इलाकों के डूबने का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा।
अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने वर्ष 1985 में पहली बार अरुणाचल में प्रस्तावित बांधों के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया था।
धीरे-धीरे आम लोग भी इसके विरोध में एकजुट हो गए. जून 2008 में अरुणाचल के लोअर सुबनसिरी जिले में रंगानदी पर बने बांध से अतिरिक्त पानी छोड़े जाने के कारण असम में भारी तबाही मची थी और कम-से-कम दस लोगों की मौत हो गई थी।
उस बाढ़ के कारण करीब तीन लाख लोग बेघर हो गए थे।