छत्तीसगढ़ के भिलाई की रहने वाली उषा बारले ने पद्मश्री पुरस्कार पाकर पूरे राज्य का नाम रोशन किया है। उषा ने इस मुकाम को हासिल करने के लिए बहुत से उतार चढ़ाव देखे हैं।
उनके पिता को उनका गाना बजाना पसंद नहीं था। पिता ने उन्हें गुस्से में कुएं में फेंक दिया था, लेकिन वो अपनी जिद पर अड़ी रही।
उषा के फूफा ने उनकी कला को समझा और वो उनके सानिध्य में 7 साल की उम्र से पंडवानी गाती रहीं।
उनके जीवन की सबसे कठिन घड़ी वो थी, जब उन्होंने पूरी रात अपने पिता के शव के सामने बैठकर पंडवानी गाई।
उषा बारले आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। उन्होंने अपने बचपन से लेकर पद्मश्री पाने तक का सफर भास्कर के साथ शेयर की।
उन्होंने बताया कि बचपन में वो स्कूल नहीं जाती थी। मोहल्ले के बच्चों के साथ लकड़ी को चिकारा समझकर बजाती थीं और फिर पंडवानी गाती थी।
उनके गीत को उनके फूफा और गुरु महेत्तर दास बघेल ने देखा तो उन्होंने कहा कि ये लड़की कुछ करेगी।
इसके बाद उन्होंने मोहल्ले के कई लड़के लड़कियों के साथ उन्हें पंडवानी सिखाना शुरू किया। इन बच्चों में उषा बारले के पति अमरदास बारले भी शामिल थे।
गुरु के सानिध्य में उन्होंने पंडवानी गाना शुरू किया और उसके बाद आज वो 12 से अधिक देशों में पंडवानी की प्रस्तुति दे चुकी हैं।
उषा ने बताया कि 25 जनवरी को जब उनका नाम पद्मश्री पुरस्कार के लिए लिया गया तो उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि इतनी बड़ी उपलब्धि उन्हें मिल रही है।
उन्होंने बताया कि जैसे ही ये खबर मिली पति, बेटा-बेटी सभी के आंसू छलक गए और एक दूसरे को गले लगा लिया।
सबने एक दूसरे को बधाई दी। उषा कहती हैं कि वो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को धन्यवाद देती हैं, जो उन्होंने उनकी कला को ये सम्मान दिया।
उषा बारले ने बताया कि उनके पिता खान सिंह जांगड़े नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी कलाकार बने। वो खुद नाचने गाने वाले कलाकार थे।
वो कहते थे की एक कलाकार का जीवन बहुत संघर्ष और गरीबी वाला होता है। उषा लड़की है कहां जाएगी, कैसे संघर्ष करेगी। जब उषा ने 7 साल की उम्र में एक स्कूल के कार्यक्रम में अपना पहला परफार्मेंस दिया तो उसे देखकर उनके पिता काफी रोए।
उन्होंने बेटी को मना किया। उषा गीत गाने की जिद करने लगी तो उन्होंने उसे कुएं में फेंक दिया। मोहल्ले वालों और उनकी मां धनमत बाई ने उन्हें कुएं से बाहर निकाला और पिता को समझाया।
जिसके बाद उन्होंने बेटी को आगे बढ़ने का आशीर्वाद दिया और अपनी गलती के लिए खेद भी व्यक्त किया।
उषा बारले की शादी दो साल की उम्र में मोहल्ले में ही अमर दास बारले के साथ हो गई थी। उषा अपने घर में बड़ी बेटी थीं। पिता को 50 साल के बाद दूसरी पत्नी से संतान हुई थी।
इसलिए उन्होंने उषा की शादी जल्दी कर दी थी कि उनके न रहने के बाद उनका पति उनका सहारा बन सके।
उषा पति के साथ ही गिल्ली डंडा, भौंरा खेलकर बड़ी हुईं और उन्हीं के साथ पंडवानी को सीखा। अमर दास बारले बीएसपी कर्मी हैं और वो भी पंडवानी गीत गाते हैं।
पिता जब खत्म हुए तो उषा 10 साल की थीं। पिता जो उन्हें डांटते थे। उसे याद करके उषा बहुत रो रही थीं।
उस दिन उनकी मां घर में नहीं थी। बस्ती वालों ने शव को घर में रखवा दिया था। बोले मां के आने के बाद अंतिम संस्कार किया जाए। रात में परिवार के भइया बिसाहू राम बघेल ने वाद्ययंत्र निकाला और कहा कि नोनी तू गाना गा। उषा रोते हुए पिता को याद करके गाना गाती रहीं।
उषा बारले को 45 साल पंडवानी गाने के बाद पद्मश्री पुरस्कार मिला। अब तक वो 12 से ज्यादा देशों में अपनी प्रस्तुति दे चुकी हैं।
पद्मश्री के साथ ही पंडवानी के लिए उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार की तरफ से गुरु घासीदास सामाजिक चेतना पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
इसके साथ ही उन्हें भिलाई स्टील प्लांट प्रबंधन ने दाऊ महासिंह चंद्राकर सम्मान से सम्मानित किया है। गिरोधपुरी तपोभूमि में भी वे छह बार स्वर्ण पदक से सम्मानित की जा चुकी हैं।