एक CISF कांस्टेबल की बर्खास्तगी बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया है कि पुलिसकर्मियों की भी मोरल पुलिसिंग (moral policing) करने की जरूरत नहीं है।
केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के एक कांस्टेबल को अपने सहकर्मी की मंगेतर के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए ब्लैकमेल करने के आरोप में नौकरी से बर्खास्त करने के आदेश को जायज करार देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी की है।
जस्टिस संजीव खन्ना और जेके माहेश्वरी की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के दिसंबर 2014 के फैसले के खिलाफ सीआईएसएफ की अपील पर ये फैसला दिया।
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के मुताबिक गुजरात उच्च न्यायालय ने कॉन्स्टेबल संतोष कुमार पांडे को फरवरी 2002 से 50% पूर्वव्यापी वेतन के साथ बहाल करने का निर्देश दिया था।
जबकि CISF के अनुशासनात्मक निकाय ने पांडे को सेवा से हटा दिया था। अक्टूबर 2001 में गरबा उत्सव के दौरान पांडे ने अपने सहयोगी को वडोदरा में आईपीसीएल टाउनशिप के ग्रीनबेल्ट क्षेत्र के पास अपनी मंगेतर के साथ बाइक से आते हुए देखा।
ये इलाका सीआईएसएफ की सुरक्षा में था। सहकर्मी को एक सड़क के कोने पर बाइक रोककर और अपने मंगेतर को गले लगाते हुए देखकर पांडे मौके पर पहुंच गया।
पांडे ने अपने सहयोगी को रोका और उसने लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाने की मांग की। जिसके बाद लड़की रोने लगी। बाद में पांडे ने अपने सहयोगी की कलाई घड़ी लेने के बाद उन्हें जाने दिया।
अगले दिन सहकर्मी ने इस घटना के बारे में CISF के उच्च अधिकारियों से शिकायत की। जिसने पांडे को माफी मांगने के साथ घड़ी वापस करने के लिए मजबूर किया।
लेकिन सीआईएसएफ ने लड़की के बयान दर्ज करने सहित एक जांच शुरू की और पाया कि पांडे एक अनुशासित फोर्स के कांस्टेबल के रूप में बने रहने के लायक नहीं थे।
CISF कांस्टेबल पांडे के दोष पर नरम रुख अपनाने के लिए गुजरात हाईकोर्ट की आलोचना करते हुए सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि मौजूदा मामले में तथ्य चौंकाने वाले और परेशान करने वाले हैं।
जस्टिस खन्ना ने कहा कि पांडे एक पुलिस अधिकारी नहीं हैं, और यहां तक कि पुलिस अधिकारियों को भी मोरल पुलिसिंग करने की जरूरत नहीं है।