सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार और हत्या के दोषी की मौत की सजा उम्रकैद में बदली, जानें पूरा मामला…

सुप्रीम कोर्ट ने एक विधवा के साथ बलात्कार और उसकी हत्या के मामले में 1998 में एक व्यक्ति को मिली मौत की सजा को शुक्रवार को बदलकर उम्रकैद कर दिया।

कोर्ट ने कहा कि वह (दोषी) करीब 10 साल तक एकांत कारावास में रहा है, शीर्ष अदालत ने कहा कि दोषी को एकांत कारावास में रखना उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालता है।

न्यायालय बी।ए। उमेश की ओर से दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जो 1998 में बेंगलुरु में एक विधवा के बलात्कार और हत्या में शामिल था।

प्रधान न्यायाधीश उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय पीठ ने कहा, ‘मौजूदा मामले में अपीलकर्ता को निचली अदालत द्वारा 2006 में मौत की सजा सुनाई गई थी और राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका का निपटारा अंततः 12 मई, 2013 को किया गया था।

इसका अर्थ है कि कानून की मंजूरी के बिना अपीलकर्ता को 2006 से 2013 तक एकान्त कारावास और अलग-थलग करके रखना इस अदालत द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के पूर्णरूपेण खिलाफ है।’

एकान्त कारावास में कैद होने का अपीलकर्ता की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा,पीठ ने आगे कहा,’मौजूदा मामले में, एकान्त कारावास की अवधि लगभग 10 वर्ष है और इसके दो तत्व हैं।

पहला, 2006 से 2013 में दया याचिका के निपटारे तक और दूसरा, इस तरह के निपटान की तारीख से 2016 तक।

शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर अपीलकर्ता को दी गई मौत की सजा कम की जाती है तो न्याय का लक्ष्य पूरा होगा।

पीठ ने कहा, ‘एकान्त कारावास में कैद होने का अपीलकर्ता की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा है। मामले के इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में हमारे विचार में अपीलकर्ता इस बात का हकदार है कि उसे दी गई मौत की सजा उम्रकैद में तब्दील की जाए।’

पीठ में न्यायमूर्ति एस। रवीन्द्र भट और न्यायमूर्ति पी।एस। नरसिम्हा भी शामिल थे।

उम्रकैद की सजा पर कोर्ट ने दी कानूनी दलील

शीर्ष अदालत ने कहा, ‘हम उसे (अपीलकर्ता को) एक शर्त के साथ उम्रकैद की सजा सुनाते हैं कि उसे (आजीवन कारावास के तौर पर) कम से कम 30 साल की सजा भुगतनी होगी और यदि उसकी ओर से छूट के लिए कोई आवेदन पेश किया जाता है, तो 30 साल की सजा पूरी करने के बाद ही गुण-दोष के आधार पर विचार किया जाएगा।’

दोषी की अपील पर फैसला करने में देरी के आधार के बारे में शीर्ष अदालत ने कहा कि इनमें से प्रत्येक अधिकारियों और पदाधिकारियों द्वारा लिये गए समय को ‘अत्यधिक देरी’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती है और दूसरी बात, ऐसा भी नहीं था कि हर गुजरते दिन के साथ अपीलकर्ता की व्यथा में वृद्धि हो रही थी।

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