दुनिया के दो कम्युनिस्ट देश खासकर तानाशाह देश, पूरी धरती के लिए आफत बने हुए हैं।
रूस ने यूक्रेन को दबोचने के लालच में दुनियाभर में अनाज और तेल का संकट पैदा कर रखा है।
और अब चीन, ताइवान को दबोचने की कोशिश में लगा हुआ है। अगर ताइवान पर हमला होता है तो दुनियाभर की मोबाइल और ऑटो इंडस्ट्री में चिप का संकट खड़ा हो जाएगा जो कि सबसे बड़ा होगा।
दरअसल दुनिया के 90 प्रतिशत एडवांस सेमी कंडक्टर ताइवान में ही बनाए जाते हैं। पिछले साल ताइवान ने 118 अरब डॉलर का एक्सपोर्ट सिर्फ सेमी कंडक्टर केटेगरी में किया था।
टीएसएमसी यानी ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्यूफैक्चरिंग कंपनी दुनिया की सभी बड़ी कंपनियों जिनमें एप्पल, एएमडी, एनवीडिया, एआरएम शामिल हैं, को चिप सप्लाई करती है।
बहरहाल, यहां यह समझना जरूरी है कि चीन और ताइवान के बीच आखिर झगड़ा किस बात का है। कहने को ये दोनों चीन ही हैं। पहले झगड़ा इस बात का था कि असल कौन? अब ताइवान खुद को संप्रभु मानता है जबकि चीन उसे खुद का हिस्सा मानता है।
यह झगड़ा 73 साल से चला आ रहा है। दरअसल, चीन के साथ ताइवान का पहला संपर्क 1683 में हुआ जब ताइवान क्विंग राजवंश के अधीन था। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इसकी भूमिका 1894-95 में पहले चीन- जापान युद्ध के दौरान सामने आई।
इसमें जापान ने क्विंग राजवंश को हराकर ताइवान को अपना उपनिवेश बना लिया। इस पराजय के बाद चीन कई भागों में बिखर गया। तब चीन के बड़े नेता सुन् – यात- त्सेन चीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को ठोक-पींज कर एक करना चाहते थे।
इस उद्देश्य से त्सेन ने 1912 में कुओ मिंगतांग पार्टी बनाई। रिपब्लिक ऑफ चाइना वाले अपने अभियान में वे सफल भी हुए। 1925 में त्सेन की मृत्यु हो गई। इसके बाद मिंगतांग पार्टी के दो टुकड़े हो गए। नेशनलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी।
नेशनलिस्ट पार्टी जनता को ज्यादा से ज्यादा अधिकार देने के पक्ष में थी जबकि कम्युनिस्ट पार्टी डिक्टेटरशिप में भरोसा रखती थी। इसी बात पर चीन के भीतर गृहयुद्ध शुरू हुआ। 1927 में दोनों पार्टियों के बीच नरसंहार की नौबत आ गई। शंघाई शहर में हजारों लोगों को मार गिराया गया। यह गृह युद्ध 1927 से 1950 तक चला।
इसका फायदा जापान ने उठाया और चीन के बड़े शहर मंजूरिया को दबोचकर वहां अत्याचार किए। तब दोनों पार्टियों ने मिलकर जापान का मुकाबला किया और द्वितीय विश्व युद्ध (1945) में जापान को भगा दिया।
जापान ने ताइवान पर से भी दावा छोड़ दिया। इसके बाद दोनों पार्टियों में फिर झगड़े शुरु हो गए। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना और रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी चीन और ताइवान। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी यानी माओ त्से तुंग का शासन था जबकि ताइवान में नेशनलिस्ट कुओमितांग यानी चियांग काई शेक का शासन था।
दोनों के बीच संपूर्ण चीन पर कब्जे के लिए जंग हुई। रूस की मदद से कम्युनिस्ट जीत गए और शेक को ताइवान में समेट दिया। यानी ताइवान तक सीमित कर दिया। दरअसल ताइवान द्वीप पेइचिंग से दो हजार किमी दूर है।
माओ की नजर फिर भी ताइवान पर रही और वे उसे चीन में मिलाने पर अड़े रहे। समय समय पर झगड़े होते रहे लेकिन चीन कामयाब नहीं हो पाया क्योंकि ताइवान के पीछे अमेरिका खड़ा हो गया। कोरिया वॉर को दौरान अमेरिका ने ताइवान को न्यूट्रल घोषित कर दिया।
1953 में जब कोरिया वॉर खत्म हुआ तो अमेरिका ने अपना नौसैनिक बेड़ा ताइवान से बुला लिया और इसके तुरंत बाद चीन ने ताइवान पर धावा बोल दिया। सात महीने चली इस लड़ाई में चीन हावी रहा और उसने कुछ विवादित द्वीपों पर कब्जा कर लिया।
लेकिन ताइवान को पूरी तरह जीतने में चीन अब भी नाकाम रहा। अमेरिका फिर मैदान में आया और नौबत जंग की आ गई। 6 अक्टूबर 1958 को आखिर युद्ध विराम हो गया। 1945 में जब पुरानी लीग ऑफ नेशंस की जगह यूनाइटेड नेशंस ने ली तो उसने काई शेक वाले चीन यानी ताइवान को मान्यता दी।
कम्युनिस्ट चीन को नहीं। फिर 25 अक्टूबर 1971 में यूएन ने ताइवान को निकालकर कम्युनिस्ट चीन को मान्यता दे दी। अमेरिका ने भी अपना लाभ-शुभ देखकर 1978 में कम्युनिस्ट चीन को मान्यता दे दी।