हिमालय क्षेत्र की झीलें अब तबाही का कारण नहीं बनेंगी।
केदारनाथ घाटी आपदा के बाद वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान ने उत्तराखंड के सभी ग्लेशियर और आसपास की झीलों में सेंसर रिकॉर्डर लगाने शुरू कर दिए हैं।
329 झीलों में से 70% पर काम पूरा हो चुका है। केदारनाथ घाटी आपदा की मुख्य वजह केदारनाथ मंदिर से कुछ किलोमीटर ऊपर बनी चोराबाड़ी झील थी। झील में 16 जून 2013 की रात ग्लेशियर से हिमस्खलन हुआ था।
इसका पानी तबाही मचाते हुए नीचे उतरा और हजारों लोगों की मौत हो गई। आपदा के बाद वाडिया संस्थान ने सभी ग्लेशियर झीलों का सर्वे किया।
इसमें 329 झीलें संवेदनशील मिलीं। इनमें सेंसर लगाए जा रहे हैं। 70% झीलों में सेंसर लग चुके हैं। संस्थान के निदेशक डॉ. कलाचंद बताते हैं कि सेंसर फिलहाल ‘मोरन डेम लेक’ में लगाए जा रहे हैं।
जलस्तर बढ़ते ही सिग्नल मिलेंगे
सेंसर लगाने से यह फायदा होगा कि जैसे ही झील का जलस्तर बढ़ेगा, बादल फटेगा या हिमस्खलन होगा, संस्थान के कंट्रोल रूम को सिग्नल मिल जाएंगे। तब वैज्ञानिक तुरंत झील को ‘पंक्चर’ करने की कार्रवाई शुरू कर देंगे।
वाडिया संस्थान के पूर्व ग्लेशियर वैज्ञानिक डाॅ. डीपी डोभाल बताते हैं कि ऐसी ज्यादातर झीलें ग्लेशियर के पास ही बनती हैं। इसलिए इन्हें पंक्चर करने के लिए धमाका नहीं किया जाता।
खतरे का आकलन कर विशेष वाटर पंप से ऊपरी सतह से पानी निकाला जाता है। साथ ही झील के एक तरफ खुदाई कर छोटा आउटलेट बनाया जाता है, ताकि धीरे-धीरे पानी निकलता रहे।
नेपाल और सिक्कम की झीलों को भी यहां के वैज्ञानिक अक्सर पंक्चर करते रहे हैं। पूरे हिमालय क्षेत्र में 15 हजार ग्लेशियर, जबकि 9 हजार झीलें हैं।
हिमालयी रेंज में 3 तरह की झीलें, मोरन डेम लेक खतरनाक
1. सुपरा: ग्लेशियर के ऊपर बनती हैं। क्षेत्र 10-20 मीटर तक। ऐसी 809 झीलें हैं।
2. मोरन डेम: ये ग्लेशियर खत्म होने के अगल-बगल होती हैं। ऐसी 329 झीलें हैं।
3. ग्लेशियर इरोसिन: ये झीलें खतरनाक नहीं होतीं। उत्तराखंड में ऐसी 125 झीलें।