भारतीय राजनीति में राज्यपाल की भूमिका लंबे समय से विवाद का विषय रही है।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी का विवादित निर्णय और उसके खिलाफ अटलजी का धरने पर बैठना हो।
केरल के मौजूदा राज्यपाल आरिफ मोहम्मद के जब-तब दिए जा रहे बयान हों या मप्र के राज्यपाल रहे राम नरेश यादव के परिवार का एक विवाद में नाम उछलना हो, ये सब कहीं न कहीं इस पद की भूमिका पर सवाल तो खड़ा करते ही हैं।
फिलहाल विवाद महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के बयान पर हुआ है। एक कार्यक्रम में उन्होंने कह दिया कि मुंबई से गुजरातियों और राजस्थानियों को हटा दिया जाए तो मुंबई के पास पैसा ही नहीं बचेगा और ऐसे में फिर मुंबई देश की व्यापारिक राजधानी कहने लायक भी नहीं बचेगी।
इसे महाराष्ट्र के लोगों के अपमान वाला बयान बताकर सभी राजनीतिक दलों ने विरोध शुरु कर दिया। होना भी था। यहां तक कि एक-दो भाजपा नेताओं ने भी राज्यपाल के इस बयान से असहमति जता दी।
देर से ही सही, भाजपा की मेहरबानी से अभी-अभी मुख्यमंत्री बने एकनाथ शिंदे ने भी राज्यपाल के बयान से असहमति जता दी। हालांकि जैसा कि होता है- कोश्यारी ने अपना बयान वापस ले लिया और कहा मराठी लोगों का अपमान करना मेरा उद्देश्य नहीं था।
सवाल यह उठता है कि राज्यपालों को इस तरह की बयानबाजी करने की जरूरत क्या है? इस सब के लिए राज्य में कई दल और उनके नेता मौजूद तो हैं! आपका पद संवैधानिक है। विधि के अनुसार काम कीजिए। बयानबाजी के लिए तो आपकी नियुक्ति हुई नहीं है। आप तमाम दलीय राजनीति से ऊपर हैं।
दरअसल, संविधान की भावना यह रही है कि कोई निष्पक्ष व्यक्ति, जो विषय विशेषज्ञ हो या संविधान या विधि का जानकार हो, अनुभव के आधार पर उसे ही राज्यपाल बनाया जाए। लेकिन केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही हो, अन्य दलों की या भाजपा की, ज्यादातर राज्यपाल उन्होंने अपने दलों के नेताओं को या समर्थकों को ही बनाया।
संविधान के तहत राष्ट्रपति के प्रतिनिधि की नियुक्ति का इस तरह का कोई घोषित प्रावधान तो है नहीं। इसी गली का सब फायदा उठाते हैं। विपक्ष में रहते हुए तो स्वयं भाजपा यह सवाल उठा चुकी है कि राज्यपाल जैसे पद की अब जरूरत ही क्या है?
एकड़ों में फैले बंगलों में बैठकर, भारी-भरकम, महंगे स्टॉफ के साथ आखिर ये करते क्या रहते हैं। सरकारी पैसे को बहाने के सिवाय! लेकिन सत्ता में आने के बाद सारे मायने बदल गए!
राज्यपालों की नियुक्ति और केंद्र-राज्य संबंधों में शक्ति संतुलन विषय पर जून 1983 में एक आयोग बनाया गया था। सरकारिया आयोग। उसने कई सिफारिशें की थीं जिनमें से ज्यादातर लागू नहीं हुई।
इन सिफारिशों में कहा गया था कि केंद्र में जिस दल की सरकार हो उस दल से जुड़े व्यक्ति को उस राज्य में राज्यपाल न बनाया जाए जहां विपक्ष या दूसरे दल की सरकार हो। कौन सुनता? क्योंकि दूसरे दलों की सरकारों वाले राज्यों में ही तो कथित रूप से राज्यपालों को ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है!
दूसरी सिफारिश थी- राज्यपाल जीवन के किसी क्षेत्र का महत्वपूर्ण व्यक्ति हो। यहां भावना विषय विशेषज्ञ कहने की रही होगी। लेकिन कौन सुनता? नेता होना ही आजकल सबसे बड़ी प्राथमिकता हो चली है!
तीसरी सिफारिश थी- वह पिछले पांच सालों से राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय न रहा हो। यह भी नहीं मानी गई। क्योंकि यह तो किसी भी दल की तासीर पर फिट ही नहीं बैठती।