कौन हैं फ्रांसेस्का ओरसिनी, जिन्हें दिल्ली एयरपोर्ट से ही वापस भेजा गया; हिंदी से उनका है गहरा नाता…

हिंदी साहित्य की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त विदुषी और लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ (SOAS) की प्रोफेसर एमेरिटा फ्रांसेस्का ऑर्सिनी को सोमवार देर रात दिल्ली एयरपोर्ट पर भारत में प्रवेश से रोक दिया गया और उन्हें वापस भेज दिया गया।

सरकारी सूत्रों के अनुसार, यह कार्रवाई उनके पिछले दौरे के दौरान वीजा शर्तों के उल्लंघन के आरोप में की गई।

गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि उनकी पिछली यात्राओं में वीजा नियमों के उल्लंघन की जानकारी मिलने पर उन्हें प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई।

हालांकि ऑर्सिनी का दावा है कि उन्हें कोई कारण नहीं बताया गया। बस इतना कहा गया कि उन्हें वापस भेजा जा रहा है।

उनके पति पीटर कॉर्निकी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में एमेरिटस प्रोफेसर हैं। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में कहा कि उनकी पत्नी हांगकांग से दिल्ली पहुंचीं और वहीं से वापस भेज दी गईं। उन्होंने कहा, “हमें कोई कारण नहीं बताया गया।”

आपको बता दें कि ऑर्सिनी मूल रूप से इटली की निवासी हैं। उन्होंने हिंदी की पढ़ाई सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ हिंदी (आगरा) और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से की थी।

वह ‘The Hindi Public Sphere 1920–1940: Language and Literature in the Age of Nationalism’ पुस्तक की लेखिका हैं, जिसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने 2002 में प्रकाशित किया था। यह किताब हिंदी भाषा और साहित्य में राष्ट्रवाद के दौर की सार्वजनिक विमर्श संस्कृति का अध्ययन करती है।

उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के रैडक्लिफ इंस्टीट्यूट में 2013–14 में फेलो के रूप में कार्य किया था। लगभग तीन दशकों तक SOAS में अध्यापन के बाद वे 2021 में सेवानिवृत्त हुईं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर उनकी मित्र हैं। उन्होंने कहा, “भारत से उनका चार दशक से अधिक का जुड़ाव रहा है। वे हिंदी और मध्यकालीन साहित्य की गहरी अध्येता हैं। उन्होंने कई भारतीय विद्वानों का मार्गदर्शन किया और अनेक ग्रंथों का अनुवाद किया। यह दौरा भी उनके वार्षिक शोध-यात्राओं में से एक था।”

दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के पूर्व प्रोफेसर आलोक राय ने कहा, “फ्रांसेस्का भारत आईं हिंदी सीखने और इस देश से प्रेम कर बैठीं। उन्होंने हिंदी सार्वजनिक क्षेत्र के निर्माण पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। वे बेहद सूक्ष्म और गंभीर शोधकर्ता हैं, जिन्होंने हिंदी के साथ-साथ उर्दू और फारसी पर भी काम किया है।”

पिछले वर्ष अक्टूबर में उन्होंने दास्तानगोई कलेक्टिव द्वारा आयोजित शम्सुर रहमान फारूकी स्मृति व्याख्यान में ‘पूरब: एक बहुभाषी साहित्यिक इतिहास’ विषय पर व्याख्यान दिया था।

उन्होंने डॉ. बी.आर. अंबेडकर विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी कई बार साहित्यिक इतिहास और तुलनात्मक साहित्य पर भाषण दिए हैं।

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