प्रवीण नांगिया (ज्योतिष सलाहकार):
भगवान दत्तात्रेय की जयंती हर साल मार्गशीर्ष महीने की पूर्णिमा को मनाई जाती है।जयंती के उत्सव का आयोजन उस व्यक्ति में विद्यमान सद्गुणों को याद करने के लिए किया जाता है।
दत्तात्रेय ने सृष्टि में उपस्थित समस्त समष्टि से ज्ञान प्राप्त किया था। अत्रेय ऋषि की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने दत्ता को गोद ले लिया। दत्ता या दत्त का अर्थ होता है— दिया हुआ, पाया हुआ या अपनाया हुआ।
इसीलिए जब कोई किसी बच्चे को गोद लेता है तो उसे ‘दत्त स्वीकारा’ कहा जाता है। जब आत्रेय और अनुसूया ने बच्चे को गोद लिया तो उसे ‘दत्तात्रेय’ कहा गया।
इस बालक में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव, तीनों की ही शक्तियां विद्यमान थीं। सृजनशीलता अनेक लोगों में होती है, पर सभी इसका सदुपयोग नहीं कर पाते।
कुछ लोग आरंभ अच्छा कर देते हैं लेकिन उसे निरंतर बनाए नहीं रख सकते। सृजनशीलता ही ‘ब्रह्मा शक्ति’ है। यदि भीतर ब्रह्मा शक्ति नहीं है, तो हम सृजन तो कर लेते हैं परंतु उसे कायम रखना नहीं जानते।
किसी काम या बात को बनाए रखना, कायम रखना ‘विष्णु शक्ति’ है। हमें ऐसे अनेक लोग मिल जाते हैं, जो अच्छे प्रबंधक या पालक होते हैं।
वे सृजन नहीं कर सकते परंतु, यदि उन्हें कुछ सृजन करके दे दिया जाए तो वे उसे अत्युत्तम ढंग से निभाते हैं। अत व्यक्ति में विष्णु शक्ति अर्थात सृजित को बनाए रखने की शक्ति होना भी आवश्यक है।
इसके बाद आती है ‘शिव शक्ति’ जो परिवर्तन या नवीनता लाने की शक्ति होती है। अनेक लोग ऐसे होते हैं, जो चल रही किसी बात या काम को केवल कायम या बनाए रख सकते हैं, परंतु उन्हें ये नहीं पता होता है कि परिवर्तन कैसे लाया जाता है या इसमें नए स्तर तक कैसे पहुंचा जाए। इसलिए शिव शक्ति का होना भी आवश्यक है।
इन तीनों शक्तियों का एक साथ होना ‘गुरु शक्ति’ है। गुरु या मार्गदर्शक को इन तीनों शक्तियों का ज्ञान होना चाहिए। दत्तात्रेय के भीतर ये तीनों शक्तियां विद्यमान थीं, इसका अर्थ ये हुआ कि वे गुरु शक्ति के प्रतीक थे।
मार्गदर्शक, सृजनात्मकता, पालनकर्ता एवं परिवर्तनकर्ता सभी शक्तियां एक साथ! दत्तात्रेय ने समस्त सृष्टि का अवलोकन किया और सबसे ज्ञानअर्जित किया।
श्रीमद्भागवत में उल्लिखित है कि ‘यह बहुत ही रोचक है कि उन्होंने कैसे एक हंस को देखा और उससे कुछ सीखा, उन्होंने कौवे को देख कर भी कुछ सीखा और इसी प्रकार एक वृद्ध महिला को देख कर भी उससे ज्ञान ग्रहण किया।’