UCC पर पूर्वोत्तर में कोलाहल क्यों, 220 जनजातीय समुदायों में किस बात का डर, क्या होगा असर?…

प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (UCC) से न केवल मुसलमान और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच खलबली मची है बल्कि इस मुद्दे ने पूर्वोत्तर के कई राज्यों में भी महत्वपूर्ण बहस छेड़ दी है।

वैसे तो पूर्वोत्तर में जनजातीय समूहों के परंपरागत तरीके से चली आ रही कई प्रथागत कानूनों की सुरक्षा की गारंटी भारत के संविधान के तहत दी गई है, बावजूद इसके प्रस्तावित UCC से वहां भी अटकलों और चर्चा का बाजार गर्म है।

देश के पूर्वोत्तर राज्यों में करीब 220 से अधिक विभिन्न जातीय समूहों का निवास है। इसे दुनिया के सबसे विविध सांस्कृतिक क्षेत्रों में से एक माना जाता है।

2011 की जनगणना के अनुसार, मिजोरम, नागालैंड और मेघालय में आदिवासी आबादी क्रमशः 94.4%, 86.5% और 86.1% है।

पूर्वोत्तर के इन आदिवासी समूहों का चिंता है कि  अगर एक समान नागरिक संहिता लागू हुई तो उनकी लंबे समय से चली आ रहे बहुसंख्यक और विविध रीति-रिवाजों और प्रथाओं पर अतिक्रमण होगा, जो संविधान द्वारा संरक्षित हैं।

यूसीसी से उत्तरी राज्यों, विशेषकर मिजोरम, नागालैंड और मेघालय में विरासत, विवाह और धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित कानूनों पर असर पड़ने की आशंका है।

लॉ कमीशन की टिप्पणियाँ
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक, लॉ कमीशन की 2018 की रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि असम, बिहार, झारखंड और उड़ीसा में कुछ जनजातियाँ उत्तराधिकार के प्राचीन प्रथागत कानूनों का पालन करती हैं।

इन जनजातियों में असम के खासिया और जैंतिया हिल्स के कूर्ग ईसाई, खासिया और ज्येंतेंग, साथ ही बिहार, झारखंड और उड़ीसा के मुंडा और ओरांव शामिल हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ जनजातियाँ और समूह जो मातृसत्तात्मक व्यवस्था का पालन करते हैं, जैसे कि उत्तर पूर्वी भारत की गारो पहाड़ी की जनजाति खासी और केरल के नायर, ने चिंता व्यक्त की है कि यूसीसी उन पर पितृसत्तात्मक एकरूपता लागू कर सकता है।

लॉ कमीशन के 2018 के श्वेत पत्र में यह भी स्वीकार किया गया है कि मेघालय में कुछ जनजातियों में “मातृसत्ता” है, जहां संपत्ति सबसे छोटी बेटी को विरासत में मिलती है, दूसरी तरफ गारो के बीच शादी के बाद दामाद अपनी पत्नी के साथ सास-ससुर के साथ रहने के लिए आता है।

कुछ नागा जनजातियों में, महिलाओं को संपत्ति विरासत में लेने या जनजाति के बाहर शादी करने पर प्रतिबंध है। ऐसे में यह संभव है कि समान नागरिक संहिता बनाते समय इन सांस्कृतिक मतभेदों को ध्यान में नहीं रखा जाएगा।

मिजोरम
भारत के संविधान के अनुच्छेद 371जी में कहा गया है कि संसद का कोई भी कार्य जो सामाजिक या धार्मिक प्रथाओं, मिज़ो रीति-रिवाजों और प्रक्रियाओं, और मिज़ो जातीय समूहों की भूमि के स्वामित्व और हस्तांतरण को प्रभावित करता है, मिज़ोरम पर तब तक लागू नहीं हो सकता जब तक कि राज्य विधानसभा द्वारा वह पारित न हो जाय। 

मिजोरम की सत्तारूढ़ सरकार ने पहले ही 14 फरवरी, 2023 को समान नागरिक संहिता के विरोध में राज्य विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित कर दिया है।

भारत में समान नागरिक संहिता को लागू करने की दिशा में किसी भी वर्तमान या भविष्य के कदम का विरोध करने के लिए इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अपनाया गया था।

सत्तारूढ़ पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट के विधायक थंगमावई ने कहा कि मिजो समुदाय के भीतर कई उप-जनजातियां हैं। यहां समान नागरिक संहिता लागू करना अव्यावहारिक है।

उन्होंने बताया,”राज्य में बैपटिस्टों के बीच भी अलग-अलग बैपटिस्ट संप्रदाय हैं, जिससे ईसाई धर्म के भीतर एक समान बैपटिस्ट पहचान होना असंभव हो गया है। मिजोरम में, एक समान नागरिक संहिता लागू करना मुश्किल हो सकता है और संभावित रूप से अस्थिरता पैदा हो सकती है। इसलिए फरवरी में पिछले विधानसभा सत्र के दौरान यूसीसी के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया गया है।”

मेघालय
मेघालय एक ऐसा राज्य है जिसमें तीन प्रमुख जनजातियाँ शामिल हैं: गारो, खासी और जैन्तिया। इन जनजातियों के विवाह, तलाक और गोद लेने और विरासत जैसे कई अन्य मामलों से संबंधित अपने अलग रीति-रिवाज और प्रथागत तरीके हैं। मेघालय के एक वकील और कार्यकर्ता रॉबर्ट खारजाह्रिन ने बताया कि भारत स्वयं अपनी बहुसंस्कृतिवाद, विविध रीति-रिवाजों और कई भाषाओं की विशेषता वाला देश है। उन्होंने कहा, “ऐसे में पूरे देश पर एक ही रीति-रिवाज, भाषा या धर्म थोपने का विचार बिल्कुल असंभव है।”

मेघालय के लोगों को इस बात की चिंता है कि अगर संसद ने विवाह, तलाक, गोद लेने आदि के संबंध में एक समान कानून लागू किया, तो इसका सीधा असर उन रीति-रिवाजों और परंपराओं पर पड़ेगा जिनका पालन पहाड़ी जनजाति समुदाय सदियों से करते आ रहे हैं।

शायद यही वजह है कि मेघालय के मुख्यमंत्री कॉनराड के संगमा, जो एनडीए सरकार का हिस्सा हैं, ने 30 जून को कहा कि समान नागरिक संहिता भारत की विविधता के सार के खिलाफ है। इसके अतिरिक्त, मेघालय की आदिवासी परिषदों के सभी तीन मुख्य कार्यकारी सदस्यों ने भी समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन का विरोध करने का फैसला किया है।

नागालैंड
मिजोरम और मेघालय की तरह नागालैंड के लोगों ने भी समान नागरिक संहिता (UCC) का कड़ा विरोध किया है। नागालैंड राज्य की स्थापना 1963 में अनुच्छेद 371ए (बाद में अनुच्छेद 371जे तक विस्तारित) को 13वें संशोधन के माध्यम से भारत के संविधान में शामिल किए जाने के बाद की गई थी। यह अनुच्छेद राज्य में सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं, प्रथागत कानूनों और भूमि और संसाधनों के स्वामित्व की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

ये “विशेष प्रावधान” नागा लोगों की भूमि, संसाधनों, सामाजिक रीति-रिवाजों, धार्मिक प्रथाओं और प्रथागत कानूनों के अधिकारों और हितों की रक्षा करते हैं। इन मामलों से संबंधित कोई भी संसदीय कानून किसी प्रस्ताव के माध्यम से विधान सभा की मंजूरी के बिना नागालैंड में लागू नहीं किया जा सकता है।

ये प्रावधान नागालैंड के लोगों को भारतीय संघ का हिस्सा रहते हुए भी अपनी विशिष्ट पहचान और जीवन शैली बनाए रखने की अनुमति देते हैं। राइजिंग पीपल पार्टी के महासचिव अमाई चिंगखु ने कहा कि ऐसे में समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन इन विशेष प्रावधानों का खंडन करेगा और नागालैंड में लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करेगा।

बता दें कि करीब 3000 से अधिक सदस्यों वाले संगठन नागालैंड ट्रांसपेरेंसी, पब्लिक राइट्स एडवोकेसी एंड डायरेक्ट-एक्शन ऑर्गेनाइजेशन (NTPRADAO),  ने 30 जून को राज्य के विधायकों को कड़ी चेतावनी और धमकी दी है कि अगर यूसीसी पर 14वीं नागालैंड विधान सभा बाहरी दबाव के आगे झुकती है और समान नागरिक संहिता के पक्ष में विधेयक को मंजूरी देती है तो इसके खिलाफ गंभीर कार्रवाई की जाएगी।  NTPRADAO ने विरोध में सभी 60 विधायकों के आधिकारिक आवासों पर धावा बोलने और आग लगाने की धमकी दी है।

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